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आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ātiṣṭhantam pari viśve abhūṣañ chriyo vasānaś carati svarociḥ | mahat tad vṛṣṇo asurasya nāmā viśvarūpo amṛtāni tasthau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वऽरो॑चिः। म॒हत्। तत्। वृष्णः॑। असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्य के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः) ढाँपता वा ग्रहण करता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह सूर्य्य (वृष्णः) वृष्टिकारक (असुरस्य) दोषों को दूर करने वा प्राणों में रमनेवाले वायु सम्बन्धी (अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा) जलों को व्याप्त होकर (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण विद्वान् लोग (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! वायुरूप आधार में वर्त्तमान सूर्य्य आदि लोक जल वृष्टि आदि के द्वारा सब लोगों को आनन्द देते हैं, वैसे ही लक्ष्मी उत्पादन करनेवाला पुरुष सबको शोभित करता है ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्यविषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्यो विश्वरूपः श्रियो वसानः स्वरोचिः सूर्यो वृष्णोऽसुरस्य वायोरमृतानि नामा तस्थाविव यन्महत्तच्चरति तमातिष्ठन्तं विश्वे विद्वांसो पर्य्यभूषन् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आतिष्ठन्तम्) समन्तात् स्थितम् (परि) सर्वतः (विश्वे) सर्वे (अभूषन्) अलंकुर्वन् (श्रियः) लक्ष्मीः (वसानः) आच्छादयन् गृह्णन् (चरति) गच्छति (स्वरोचिः) स्वकीयं रोचिर्दीपनं यस्य सः (महत्) (तत्) (वृष्णः) वर्षकस्य (असुरस्य) योऽस्यति दोषान्प्राणेषु रममाणो वा तस्य (नामा) उदकानि। नामेत्युदकना०। निघं० १। १२। (विश्वरूपः) विश्वानि रूपाणि यस्मात्सः (अमृतानि) अमृतात्मकानि (तस्थौ) तिष्ठति ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या वाय्वाधारे स्थिताः सूर्य्यादयो लोका जलवर्षणादिद्वारा सर्वानानन्दयन्ति तथैव श्रीकरः पुरुषः सर्वान् विभूषयति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! वायूरूपी आधार असलेले सूर्य इत्यादी गोल जलवृष्टीद्वारे सर्व लोकांना आनंद देतात तसे श्री प्राप्त करणारा पुरुष सर्वांना सुशोभित करतो. ॥ ४ ॥